कुंभ सिंहस्थ मेला, हिंदू धर्म का सबसे बड़ा धार्मिक और आध्यात्मिक समागम, न केवल एक तीर्थयात्रा है, बल्कि सनातन धर्म की एकता और दार्शनिक गहराई का प्रतीक भी है। इस मेले की शुरुआत और इसके संगठन में 8वीं शताब्दी के महान दार्शनिक और सनातन धर्म के पुनर्जननकर्ता आदि शंकराचार्य की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।
आदि शंकराचार्य जी कौन थे?
आदि शंकराचार्य (788-820 ई.) भारतीय और सनातन धर्म के सबसे प्रभावशाली आचार्यों में से एक थे। उन्होंने अद्वैत वेदांत दर्शन को स्थापित किया और भारत में सनातन धर्म को पुनर्जनन करने के लिए चार मठों (ज्योतिर्मठ, शृंगेरी, पुरी और द्वारका) की स्थापना की। शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म और अन्य मतों के साथ वैचारिक संवाद स्थापित कर हिंदू धर्म को एक मजबूत दार्शनिक आधार प्रदान किया।
कुंभ मेला जैसे आयोजनों को संगठित करने में उनकी भूमिका को सनातन धर्म को एकजुट करने और इसके सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाने के प्रयास के रूप में देखा जाता है।
कुंभ सिंहस्थ मेला की व्यवस्था क्यों की गई?
हिन्दू धर्म मे कुंभ मेला चार पवित्र स्थानों—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में हर 12 वर्षों में आयोजित होने वाला एक विशाल धार्मिक महापर्व है। जब यह मेला उज्जैन में आयोजित होता है, तो इसे सिंहस्थ कुंभ मेला कहा जाता है, क्योंकि यह तब होता है जब गुरु (बृहस्पति) सिंह राशि में प्रवेश करता है।
यह मेला पौराणिक कथाओं, ज्योतिषीय संरेखण और सनातन धर्म की परंपराओं का संगम है। इसका मूल उद्देश्य साधु-संतों, तीर्थयात्रियों और विद्वानों को एक मंच पर लाना है, जहां वे आध्यात्मिक चर्चा, स्नान और दान-पुण्य के माध्यम से आत्मिक शुद्धि प्राप्त कर सकें।
आदि शंकराचार्य का कुंभ मेला आयोजन का मुख्य उद्देश्य
आदि शंकराचार्य ने कुंभ मेला को मुख्य रूप से संगठित करने का कार्य शुरू किया ताकि सनातन धर्म को मजबूत किया जा सके और विभिन्न संप्रदायों के बीच एकता स्थापित हो। उनके उद्देश्यों को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:
सनातन धर्म की एकता: उस समय भारत में विभिन्न संप्रदाय जैसे शैव, वैष्णव, शाक्त और उदासीन सक्रिय थे। शंकराचार्य ने कुंभ मेला को एक ऐसा मंच बनाया, जहां ये सभी संप्रदाय एक साथ आकर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। यह आयोजन सनातन धर्म के विभिन्न पहलुओं को एकजुट करने का एक प्रयास था।
दार्शनिक और आध्यात्मिक चर्चा: शंकराचार्य जी ने कुंभ मेला को दार्शनिक और आध्यात्मिक चर्चाओं के लिए एक मंच के रूप में देखा। यह साधु-संतों और विद्वानों को वेद, उपनिषद और अन्य शास्त्रों पर विचार-विमर्श करने का अवसर प्रदान करता था।
आध्यात्मिक शुद्धि और प्रायश्चित: कुंभ मेला का मुख्य आकर्षण पवित्र नदियों (गंगा, यमुना, क्षिप्रा और गोदावरी) में स्नान करना है, जिसे पापों से मुक्ति और आध्यात्मिक शुद्धि का साधन माना जाता है। शंकराचार्य ने इस परंपरा को बढ़ावा दिया ताकि लोग अपने कर्मों का प्रायश्चित कर सकें।
अखाड़ों की स्थापना और संगठन: शंकराचार्य ने विभिन्न अखाड़ों (शैव, वैष्णव और उदासीन) को संगठित करने में मदद की, जो कुंभ मेला के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अखाड़ों के साधु-संत शाही स्नान के साथ मेले की शुरुआत करते हैं, जो इस आयोजन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है।
सांस्कृतिक और सामाजिक एकीकरण: कुंभ मेला भारत की विविध संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं को एक मंच पर लाता है। शंकराचार्य का उद्देश्य इस आयोजन के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देना था।
सूर्य संक्रांति और कुंभ मेला
सूर्य संक्रांति का कुंभ मेला के साथ विशेष संबंध है। मकर संक्रांति के बाद, सूर्य संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान करने की परंपरा है, जो सूर्य की स्थिति को और अधिक शुभ बनाती है। शंकराचार्य ने इस परंपरा को और अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए कुंभ मेला को संगठित किया।
सूर्य संक्रांति की पूजा विधि और उपाय
सूर्य संक्रांति के दिन निम्नलिखित पूजा और उपाय किए जा सकते हैं:
सूर्य पूजा: सूर्य देव को जल अर्पित करें और “ॐ घृणिः सूर्याय नमः” मंत्र का जाप करें।
दान-पुण्य: तिल, गुड़, गेहूं और लाल वस्त्र का दान करें।
ध्यान और योग: आध्यात्मिक शांति के लिए ध्यान और योग का अभ्यास करें।
हवन: सूर्य देव को समर्पित हवन करें और पवित्र नदियों में स्नान करें।
आदि शंकराचार्य का कुंभ सिंहस्थ मेला आयोजन का उद्देश्य सनातन धर्म को एकजुट करना, आध्यात्मिक और दार्शनिक चर्चाओं को बढ़ावा देना, और पवित्र स्नान के माध्यम से आत्मिक शुद्धि प्रदान करना था। 2025 में, यह मेला न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को भी दर्शाता है।
महाकुंभ केवल एक पवित्र स्नान नहीं, यह सनातन धर्म की आत्मा और अद्वैत वेदांत की शक्ति का प्रदर्शन है।
आदि शंकराचार्य ने जो दीप जलाया, वह आज भी हर 12 वर्षों में उज्जैन, प्रयागराज, हरिद्वार और नासिक में अमर ज्वाला बनकर जलता है।
अगर हम वास्तव में धर्म की रक्षा चाहते हैं, तो हमें शंकराचार्य की दूरदृष्टि और व्यवस्था को समझकर उसे आगे बढ़ाना होगा।